क्रोध क्षमा से ही शांत होता है
शत्रुता में क्रोध के सबब नीति-अनीति का विवेक नहीं रहता और व्यक्ति की मानसिकता कैसे भी निकृष्ट कृत्य पर उतर आती है. इसी संदर्भ में महाभारतयुद्ध का एक मार्मिक प्रसंग-
युद्ध के दौरान अश्वत्थामा ने क्रोधावेश में अनीति से द्रौपदी के पाँच युवा पुत्रों की रात के अंधेरे में हत्या कर डाली थी, जबकि वे अपनी शैय्या पर बेसुध गहरी नींद सो रहे थे. इस घटना ने तो लाज़मी तौरपर न सिर्फ़ पाँचों पांडव भाइयों की मानसिक दशा बिगाड़कर रख दी,माँ होने के कारण द्रौपदी को भी बेइंतिहा आंतरिक क्लेश पहुँचा. दुख के सैलाब का उसके आगे कोई पारावार न था. उसे स्वयं को संभालना मुश्क़िल हो गया. विक्षिप्तों जैसी उसके मन की अंतर्दशा बन गयी. टकटकी लगाये बस आगे की ओर घूरती जाये, लेकिन मुँह से एक बोल न फूटे. आँखें टपटप बही जा रही हैं और उनके खारे जल का बहाव किसी तरह कम होने को न आये. दुख के अतिरेक में देह की इंद्रियाँ तक साथ नहीं देतीं. शिथिल हो जाती हैं.
इसी बीच घोर प्रयत्न के बाद प्रतिशोध की अग्नि में जलते अश्वत्थामा को किसी तरह रस्सियों से बाँध पकड़कर द्रौपदी के सम्मुख ला प्रस्तुत किया गया कि वही स्वयं अपने अपराधी के लिये स्वेच्छा से दंड निर्धारित करे. शायद इसी से उसके प्रतिशोध का उत्ताप कुछ कम हो सके. उपस्थित लोगों में से तक़रीबन सभी का मत था कि ऐसे हत्यारे की प्राणदंड से कम सज़ा नहीं होनी चाहिए. निश्चय द्रौपदी भी यही निर्धारित करेगी. सबकी दृष्टि उस पर टिक गयी.
लेकिन द्रौपदी ने जब मुँह खोला तो उसकी भावना सुन सभी के चेहरे सकते में आ गये. किसी ने कल्पना न की थी कि इस तरह का निर्णय, पुत्रविछोह से तप्त द्रौपदी के मुँह से अचानक सुनने को मिलेगा. द्रौपदी ने लगातार रुदन से थक चुका अपना बोझिल चेहरा उठाया. आँखों के गिर्द आँसुओं के सूख चुके निशान अब भी स्पष्ट उसके चेहरे पर पढ़े जा सकते थे. नेत्र तरल और आरक्त थे. हृदय में व्याप्त दु:ख को पीछे धकेल एक ही वाक्य उसके मुख से तब निकला, जो देर तक चारों दिशाओं में बारबार गूँजता रहा,'इसे प्राणदंड नहीं, बल्क़ि प्राणदान देकर मुक्त कर दिया जाये. क्रोधावेश में किये इसके कृत्य को मैं क्षमा करती हूँ.'
निश्चय रज्जुओं से बाँध लाया गया बलिष्ठ अश्वत्थामा भी द्रौपदी का यह निर्णय सुन इकबारगी तो ज़रूर सकते में आ गया होगा. उसे क़तई इस तरह के दृश्य की कल्पना न रही होगी. नेत्रों से उसके पश्चात्ताप के आँसू ढुलक आये. वह उसी बंधी अवस्था में द्रौपदी के पैरों पर धड़ाम आ गिरा. अपराधबोध ने उसके भी नेत्रों को सहज छलका दिया.
पलक झँपकते इतना सब घट गया. सबकुछ कल्पनातीत व अप्रत्याशित था. मुखाकृतियों पर टंगे प्रश्नचिह्न इसके प्रत्यक्ष साक्षी थे. तभी द्रौपदी ने झुककर उसे उठाया और दुलार से वात्सल्य का हाथ उसके स्वेद से तरबतर मस्तक पर रख दिया, जैसे इस तरह क्षमाभाव व्यक्त करके मातृसुलभ अभय प्रदान कर रही हो.
सब एकदूसरे को असहज हो तकने लगे. किसी ने भी इस तरह के दृश्य की कल्पना न की थी. द्रौपदी बोली,'जिस दुख से मैं व्यथित व संतप्त हूँ, वही दुख मैं गुरुमाता को भला कैसे दे सकती हूँ? जानती हूँ कि इस अपराध में उनका कोई योग नहीं. जो अपराध उन्होंने किया नहीं, उसका दंड उन्हें क्यों मिले - यह तो कोई न्याय न हुआ.'
द्रौपदी की इस भावना ने सबके नेत्र तरल कर दिये. माँ के हृदय की इस गहनता को कोई माँ ही जान सकती है.
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क्रोध का प्रत्युत्तर कभी क्रोध नहीं होता. क्रोध सदा क्षमाभाव से ही शांत हुआ है. उसे हम माफ़ी द्वारा ही निस्तेज कर सकते हैं. इसके सिवा इस उबाल को ख़त्म करने का दूसरा कोई विकल्प नहीं. जलती आग में घी डालने से वह और तीव्र होती है. लपलपाती ज्वालाएँ सदैव शीतल जल द्वारा ही शांत हुई हैं. क्रोध का एकमात्र जवाब शांति में छिपा है - चुप्पी और क्षमाभाव में. आप बात को ख़त्म करना चाहते हैं और आगे बढ़ाना या खींचना नहीं चाहते, तो आपको स्वयं की भावनाओं पर नियंत्रण रखकर क्षमा का गुर अपनाना होगा. बहुधा ऐसे मौक़ों पर हम अहमन्यता की रौ में ख़ुद की भावनाओं पर क़तई नियंत्रण नहीं रख पाते और चोले से बाहर हो जाते हैं. क़ाबू खो बैठते हैं. बात को ईगो से जोड़ लेते हैं. नाक ऊँची रहनी चाहिए. उसमें कहीं ज़र्क नहीं आना चाहिए. बित्ते भर की हैसीयत के बावजूद ख़ुद को किसी रियासत के बादशाह से कम कूतने को हम राज़ी ही नहीं होते. इस झूठी शान के सबब ही अमूमन मामूली मसले ग़ैरमामूली होकर रह जाते हैं. आत्मनियंत्रण द्वारा ही हम ऐसी दशाओं में ख़ुद पर क़ाबू पा सकते हैं. इसके अलावा क्रोध को शांत करने का और कोई भी शॉर्टकट नहीं.
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