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सन्त और बिल्ली

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एक संत जी ने एक बिल्ली पाल रखी थी। और वो भी इतनी समझदार थी, कि जब शाम के समय संत जी सतसंग करते, तो रात्रि के अन्धकार को दूर करने के लिए एक चिराग़ जलाकर उस बिल्ली के माथे पर चिराग़ रख देते थे।  यह दृश्य देखकर सतसंगीजनों को बड़ा आश्चर्य होता परन्तु वे कहते कुछ नहीं।एक दिन एक सतसंगी ने बिल्ली की हकीकत का पता लगाने की एक बेहतरीन युक्ति खोजी। वह सतसंगी कहीं से एक चूहा पकड़ लाया और उसे चादर में छुपाकर, चादर ओढ़कर सतसंग में गया। प्रतिदिन की तरह ही बिल्ली के माथे पर चिराग़ रख दिया गया और सतसंग शुरू कर दिया गया । कुछ ही समय पश्चात उस सतसंगी ने चुपके से वह चूहा बिल्ली के सामने छोड़ दिया । जैसे ही बिल्ली ने चूहे को देखा वो सब कुछ भूलकर चूहे पर झपट पड़ी और चिराग़ को नीचे गिरा दिया जिससे अंधेरा हो गया। आइए हम सब इस कहानी के आशय को समझने का प्रयास करते हैं। शायद हमसब भी उस बिल्ली की ही तरह है । जब तक सतसंग करते हैं या ज्ञान की बातें करते हैं या कोई इच्छित वस्तु हमारे सामने नहीं होती है, तब तक हम सब उस बिल्ली की तरह ही शान्त बने रहते हैं।जैसे ही हमारे सामने कोई इच्छित पदार्थ सामने आत...

कर्म और आशिर्वाद का फल

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इन्सान जैसा कर्म करता है, कुदरत या परमात्मा उसे वैसा ही उसे लौटा देता है एक बार द्रोपदी सुबह तड़के स्नान करने यमुना घाट पर गयी भोर का समय था। तभी उसका ध्यान सहज ही एक साधु की ओर गया जिसके शरीर पर मात्र एक लँगोटी थी। साधु स्नान के पश्चात अपनी दुसरी लँगोटी लेने गया तो वो लँगोटी अचानक हवा के झोंके से उड़ पानी में चली गयी ओर बह गयी। सँयोगवश साधु ने जो लँगोटी पहनी वो भी फटी हुई थी। साधु सोच मे पड़ गया कि अब वह अपनी लाज कैसे बचाए। थोड़ी देर में सुर्योदय हो जाएगा और घाट पर भीड बढ़ जाएगी। साधु तेजी से पानी के बाहर आया और झाड़ी में छिप गया। द्रोपदी यह सारा दृश्य देख अपनी साडी जो पहन रखी थी, उसमे आधी फाड़ कर उस साधु के पास गयी ओर उसे आधी साड़ी देते हुए बोली- तात मैं आपकी परेशानी समझ गयी। इस वस्त्र से अपनी लाज ढँक लीजिए। साधु ने सकुचाते हुए साड़ी का टुकड़ा ले लिया और आशीष दिया। जिस तरह आज तुमने मेरी लाज बचायी उसी तरह एक दिन भगवान तुम्हारी लाज बचाएंगे। और जब भरी सभा मे चीरहरण के समय द्रोपदी की करुण पुकार नारद ने भगवान तक पहुंचायी तो भगवान ने कहा- " कर्मों के बदले मेरी कृपा बरसती है...

अक्षयतृतीयेला लाहामाइसाच्या क्रियेचा स्विकार

अक्षयतृतीयेला लाहामाइसाच्या क्रियेचा स्विकार अक्षयतृतीयेच्या दिवशी लखुबाईसांनी स्वामींना विनंती केली ," जी,जी,मी सर्वज्ञांच्या ठिकाणी अक्षयतृतीया करीन . स्वामींनी लखुबाईसांची विनंती स्विकारली . लखुबाईसांनी उपहार केला. सर्वज्ञांना तेल,उटणे लावून आंघोळ घातली.पूजावसर केला, ताट तयार केले,स्वामींचे जेवण झाले गुळुळा केला, पानांचा विडा दिला. सर्वज्ञांना घागरीत काही वेगवेगळे पदार्थ भरुन दिले ते पाहून लाहामाईसा दु:ख करु लागल्या 'ही लखुबाइसा दैवाभाग्याची . हिने सर्वज्ञानच्या ठाइ अक्षयतृतीया केली. मी दुर्दैवी माझ्या जवळ काहीच नाही, असे म्हणून दु:ख करु लागली. तेव्हा सर्वज्ञांनी लाहामाईसाला विचारले बाई, यांनी आमच्या ठायी अक्षयतृतीया केली . तुम्ही का करत नाही?  लाहामाईसा स्वामींना म्हणतात ,जी,जी,मजजवळ तर काहीच नाही? मग सर्वज्ञांनी सांगितले ," ही घागर घेऊन जा आतबाहेर धुवा.खोल पाण्यात बुडवून भरा व आम्हाला द्या. "मग आम्ही तुमची अक्षयतृतीया संपूर्ण चरितार्थ करु, "लाहामाइसा पटकन हो जी म्हणून घागर घेऊन गंगेला गेल्या आत बाहेर घासून स्वच्छ धुवून खोल पाण्यात बुडवून भरुन आणली व सर्वज्ञ...

अनमोल जीवन

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यह कहानी पुराने समय की है। एक दिन एक आदमी गुरु के पास गया और उनसे कहा, 'बताइए गुरुजी, जीवन का मूल्य क्या है?' गुरु ने उसे एक पत्थर दिया और कहा, 'जा और इस पत्थर का मूल्य पता करके आ, लेकिन ध्यान रखना पत्थर को बेचना नहीं है।' वह आदमी पत्थर को बाजार में एक संतरे वाले के पास लेकर गया और संतरे वाले को दिखाया और बोला, 'बता इसकी कीमत क्या है?'संतरे वाला चमकीले पत्थर को देखकर बोला, '12 संतरे ले जा और इसे मुझे दे जा।' वह आदमी संतरे वाले से बोला, 'गुरु ने कहा है, इसे बेचना नहीं है।'  और आगे वह एक सब्जी वाले के पास गया और उसे पत्थर दिखाया। सब्जी वाले ने उस चमकीले पत्थर को देखा और कहा, 'एक बोरी आलू ले जा और इस पत्थर को मेरे पास छोड़ जा।' उस आदमी ने कहा, 'मुझे इसे बेचना नहीं है, मेरे गुरु ने मना किया है. आगे एक सोना बेचने वाले सुनार के पास वह गया और उसे पत्थर दिखाया। सुनार उस चमकीले पत्थर को देखकर बोला, '50 लाख में बेच दे'। उसने मना कर दिया तो सुनार बोला, '2 करोड़ में दे दे या बता इसकी कीमत जो मांगेगा, वह दूंगा तुझे...।'...

एक आदर्श सुवर्णदान - दानविर कर्ण

कुरुक्षेत्रावर सुरु असलेल्या कौरव-पांडवांच्या युद्धाचा तो सतरावा दिवस.  वेळ जवळ जवळ सुर्यास्ताची.  कौरव आणि पांडव या दोन्ही पक्षांतील योद्धे सारे स्तब्ध उभे होते. समोर जमिनीवर रक्तात न्हाऊन निघालेला महावीर कर्ण मृत्युच्या शेवटच्या घटका मोजत होता. इथे कर्ण मृत्युच्या दारात आणि आसपास सभोवताली पडला होता मृत सैनिकांचा रक्तबंबाळ झालेल्या प्रेतांचा खच ईथे कर्णाचा शेवट पहात उभ्या योध्यांची मुग्ध शांतता आणि चहुकडे फक्त आकांत. त्या सैनिकांच्या आप्त स्वकीयांचा.  कर्ण आपल्या मावळत्या पित्याला शेवटचा निरोप देत असतानाच त्यांचे लक्ष वेधले गेले एका पित्याच्या मदतीसाठी मारलेल्या हाकेकडे, एका दीर्घ आकांताकडे, एका करुणामयी विनवणीकडे. " अरे या कुरुक्षेत्रावर कोणी आहे का मला मदत करणारा " युद्धात मुलगा मारला गेलाय माझा.  त्याच्या अंतिम कार्यासाठीही द्रव्य नाही माझ्याकडे. कोणी आहे का दानवीर. ? ही मदतीसाठी मारलेली हाक दानवीर कर्णाने ऐकली आणि त्याने त्या याचकास लगेच जवळ बोलावले. त्याला इच्छा विचारली तेव्हा खरे तर त्या याचकास देण्यासाठी त्या क्षणी कर्णाकडे स्वता:हा कडे काहीच द्रव्य नव्हते. ...

क्रोध क्षमा से ही शांत होता है

शत्रुता में क्रोध के सबब नीति-अनीति का विवेक नहीं रहता और व्यक्ति की मानसिकता कैसे भी निकृष्ट कृत्य पर उतर आती है. इसी संदर्भ में महाभारतयुद्ध का एक मार्मिक प्रसंग- युद्ध के दौरान अश्वत्थामा ने क्रोधावेश में अनीति से द्रौपदी के पाँच युवा पुत्रों की रात के अंधेरे में हत्या कर डाली थी, जबकि वे अपनी शैय्या पर बेसुध गहरी नींद सो रहे थे. इस घटना ने तो लाज़मी तौरपर न सिर्फ़ पाँचों पांडव भाइयों की मानसिक दशा बिगाड़कर रख दी,माँ होने के कारण द्रौपदी को भी बेइंतिहा आंतरिक क्लेश पहुँचा. दुख के सैलाब का उसके आगे कोई पारावार न था. उसे स्वयं को संभालना मुश्क़िल हो गया. विक्षिप्तों जैसी उसके मन की अंतर्दशा बन गयी. टकटकी लगाये बस आगे की ओर घूरती जाये, लेकिन मुँह से एक बोल न फूटे. आँखें टपटप बही जा रही हैं और उनके खारे जल का बहाव किसी तरह कम होने को न आये. दुख के अतिरेक में देह की इंद्रियाँ तक साथ नहीं देतीं. शिथिल हो जाती हैं.  इसी बीच घोर प्रयत्न के बाद प्रतिशोध की अग्नि में जलते अश्वत्थामा को किसी तरह रस्सियों से बाँध पकड़कर द्रौपदी के सम्मुख ला प्रस्तुत किया गया कि वही स्वयं अपने अपराधी के लिय...

निष्काम प्रेम,अर्थात निश्काम भक्ती

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एक गाँव में एक बूढ़ी माई रहती थी । माई का आगे – पीछे कोई नहीं था इसलिए बूढ़ी माई बिचारी अकेली रहती थी । एक दिन उस गाँव में एक साधू आया । बूढ़ी माई ने साधू का बहुत ही प्रेम पूर्वक आदर सत्कार किया । जब साधू जाने लगा तो बूढ़ी माई ने कहा – “ महात्मा जी ! आप तो ईश्वर के परम भक्त है । कृपा करके मुझे ऐसा आशीर्वाद दीजिये जिससे मेरा अकेलापन दूर हो जाये । अकेले रह – रह करके उब चुकी हूँ ”   साधू ने मुस्कुराते हुए अपनी झोली में से बाल – गोपाल की एक मूर्ति निकाली और बुढ़िया को देते हुए कहा – “ माई ये लो आपका बालक है, इसका अपने बच्चे की तरह प्रेम पूर्वक लालन-पालन अर्थात परम पूर्वक भक्ती करती रहना। बुढ़िया माई बड़े लाड़-प्यार से ठाकुर जी का लालन-पालन, भक्ती करने लगी। एक दिन गाँव के कुछ शरारती बच्चों ने देखा कि माई मूर्ती को अपने बच्चे की तरह लाड़ कर रही है । नटखट बच्चो को माई से हंसी – मजाक करने की सूझी । उन्होंने माई से कहा – “अरी मैय्या सुन ! आज गाँव में जंगल से एक भेड़िया घुस आया है, जो छोटे बच्चो को उठाकर ले जाता है। और मारकर खा जाता है । तू अपने लाल का ख्याल रखना, कही भेड़िया इसे उठाक...